क्या है क्रिया और क्या है कर्म ? कर्म की गति अति गहन है, अतः इसकी गहनता को जानना, समझना अति दुष्कर एवं कठिन है. कर्म की धारा में चलकर कब इंसान, पशुता के गहरे पंक में गिर जाता है और कब वह देवत्व की ओर अग्रसर हो जाता है, पता ही नहीं चलता. पता तब चलता है, जब कर्म का परिणाम सामने आने लगता है, परन्तु तब उसे भोगने के अलावा और कोई विकल्प शेष नहीं रहता है. कर्म अपने में अनेक रहस्य छिपाए रहता है. कर्म ही इंसान को बांधता है और कर्म ही बंधन से मुक्ति का कारण बनता है. परन्तु कौन सा कर्म कब भोग बन जाता है और कौन सा मुक्ति का कारण बनता है, यह विवेक दृष्टि से ही जाना जा सकता है. क्रिया और कर्म में भेद है. क्रिया कर्म नहीं है जबकि कर्म में क्रिया का होना आवश्यक है. क्रिया का प्रभाव तात्कालिक होता है और यह हो कर समाप्त हो जाता है ; जबकि कर्म का प्रभाव जन्मों-जन्मों तक रहता है, दीर्घकालिक होता है. क्रिया में किसी भी तरह की इच्छा, भावना अथवा संकल्प का संयोग नहीं होता है. क्रिया इच्छाविहीन होती है. इसमें किसी भी प्रकार की भावना का कहीं भी समावेश नहीं होता. क्रिया के साथ कोई संकल्प-विकल्प का संपुट भी
(अंतर्जगत की यात्रा का ज्ञान-विज्ञान) स्मृति और संस्कार का समान है स्वरूप अंतर्यात्रा विज्ञान में कर्म के सिद्धांत का व्यावहारिक एवं वैज्ञानिक विवेचन है. इसके प्रयोग न केवल इसे प्रकट करते है, बल्कि इसको परिमार्जित भी करते हैं. जो कर्म किया जाता है, उसकी तीब्रता, उससे जुड़े भावों व विचारों की तीव्रता के अनुरूप होते हैं. भाव व विचार से सम्बन्ध न होने पर कोई भी कर्म मात्र क्रिया बन कर रह जाता है. ऐसी स्थिति में उसका फल, मात्र तात्कालिक होता है, दीर्घकालिक नहीं हो पाता. भाव व विचार की सकारात्मकता एवं नकारात्मकता से जुड़ कर कोई भी क्रिया, शुभ अथवा अशुभ कर्मों में परिवर्तित हो जाती है. सकारात्मक भाव एवं विचार राग बनते हैं तथा नकारात्मक भाव एवं विचार द्वेष को जन्म देते हैं. राग व द्वेष की यही प्रक्रिया हलकी एवं गाढ़ी होने के अनुरूप, स्मृति व संस्कार का रूप ले लेते हैं. इनके उभरने व उदय होने से हमारे जीवन की धरा व दिशा में मोड़ आते हैं और इनसे जुड़े कर्म इनके साथ अपने फलभोग को प्रकट करते हैं. पछली कड़ियों में कर्म-सिद्धांत से जुड़े इस विचार को प्रकट किया गया था. इसमें कहा गया था की सामान्